सुबह की शुरुआत
रात के उन अनकहे पलों को याद करके जिया के होंठों पर हल्की मुस्कान आ गई। पहली बार उसे अज़ल का चेहरा मासूम लगा। वह उसे कुछ देर तक देखती रही, जैसे किसी अनजाने एहसास को समझने की कोशिश कर रही हो। लेकिन यह एहसास कितना सही था, वह नहीं जानती थी।
वह धीरे से बिस्तर से उठी और किचन की तरफ बढ़ गई। किचन में हल्की रोशनी थी। सुबह की ठंडी हवा खिड़की से अंदर आ रही थी। जिया ने गैस जलाया और नाश्ता बनाने लगी।
"तुम्हें यह सब करने की जरूरत नहीं है," अज़ल की भारी आवाज़ उसके पीछे से आई।
जिया ने पलटकर देखा। वह अब तक सोया हुआ था, लेकिन अब उसकी आँखों में हल्की सी जिज्ञासा थी।
"मुझे अच्छा लगता है," जिया ने हल्के से कहा। "तुमने नाश्ता किया?"
"तुम नौकरों को क्यों नहीं बुलाती?" अज़ल ने कहा, उसकी आवाज़ में अभी भी वही कठोरता थी।
"क्योंकि मैं चाहती हूँ कि यह नाश्ता खास हो," जिया ने हल्के से मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
अज़ल ने पहली बार महसूस किया कि जिया की मुस्कान में एक अजीब सा सुकून था, जो नफरत और दर्द से परे था।
अंधेरा जो फिर से जागा
दिन सामान्य तरीके से बीतने लगा, लेकिन जिया के दिमाग में अभी भी पिछली रात के सवाल घूम रहे थे।
अज़ल सच में बदल रहा था या फिर ये सिर्फ एक छलावा था?
वह अपने अंदर इस बदलाव को महसूस कर सकती थी, लेकिन वह भूल नहीं सकती थी कि अज़ल पर किसी अनदेखी ताकत का साया था।
"मुझे इसके बारे में और जानना होगा," उसने खुद से कहा।
शाम को अज़ल अपने किसी काम से बाहर चला गया। जिया ने यह मौका सही समझा और उसके कमरे में जाने का फैसला किया।
कमरे के अंदर एक अजीब सा सन्नाटा था। जिया ने धीरे से अलमारी खोली और वहाँ रखे कुछ पुराने कागज़ देखने लगी। तभी, उसे अज़ल की पुरानी डायरी मिल गई।
डायरी के पहले पन्ने पर ही कुछ अजीब लिखा था:
"मुझे नहीं पता मैं कौन हूँ। मुझे नहीं पता ये आवाज़ें कौन हैं जो मुझे हर रात बुलाती हैं। लेकिन एक बात तय है, ये मैं नहीं हूँ..."
जिया के हाथ काँपने लगे। उसने जल्दी से पन्ने पलटे और और पढ़ने लगी। हर पन्ने पर कुछ न कुछ ऐसा लिखा था जिससे यह साफ हो रहा था कि अज़ल के अंदर कोई और भी है—कोई ऐसा जो उसे अपने वश में कर रहा है।
"क्या यह वही जिन्न है?" जिया के मन में ख्याल आया।
तभी उसे लगा जैसे कमरे में कोई और भी मौजूद है। उसने डरते हुए पीछे मुड़कर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। लेकिन हवा अचानक ठंडी हो गई थी।
उसने डायरी जल्दी से बंद कर दी और वापस अलमारी में रख दी।
"अब मुझे मौलवी साहब से फिर मिलना होगा," उसने तय कर लिया।
रात का खौफ
उस रात, जब अज़ल घर लौटा तो जिया ने कोई बात नहीं की। वह बस उसके हर हाव-भाव को गौर से देख रही थी।
रात के खाने के बाद, अज़ल अपने कमरे में चला गया, और जिया भी बिस्तर पर लेट गई। लेकिन उसकी आँखों में नींद नहीं थी।
तभी, आधी रात को, जिया की आँख अचानक खुल गई।
कमरे में हल्की नीली रोशनी फैली हुई थी।
उसे ऐसा लगा जैसे कोई उसके बिस्तर के पास खड़ा है।
उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं, और देखा—अज़ल बिस्तर के पास खड़ा था। लेकिन वह सामान्य नहीं लग रहा था। उसकी आँखें काली हो चुकी थीं, और उसका चेहरा अजीब तरीके से टेढ़ा हो रहा था, जैसे कोई और उसके अंदर से झाँक रहा हो।
"अज़ल..." जिया ने काँपती हुई आवाज़ में कहा।
लेकिन अज़ल ने कोई जवाब नहीं दिया। वह बस उसे घूरता रहा।
फिर, अचानक, उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाए और जिया के गले को पकड़ लिया।
जिया की साँसें रुकने लगीं।
"अ... अज़ल... छोड़ो..."
लेकिन अज़ल के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
जिया की आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। तभी, अचानक अज़ल के हाथ एक झटके में पीछे हट गए, जैसे किसी ने उसे ज़बरदस्ती रोका हो।
अज़ल पीछे हट गया और लड़खड़ाते हुए गिर पड़ा।
"नहीं... मैं... मैं इसे नहीं मानता!" उसने ज़ोर से चिल्लाया और उसके अंदर से वही डरावनी आवाज़ आई जिसे जिया पहले भी सुन चुकी थी।
जिया घबराते हुए बिस्तर से उतरी और कमरे से बाहर भाग गई।
अगली सुबह
सुबह जब अज़ल उठा, तो उसे कुछ याद नहीं था।
उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था।
नीचे किचन में जिया नाश्ता बना रही थी, लेकिन आज उसका मन बिल्कुल शांत नहीं था।
अज़ल नीचे आया और जिया को देखते ही पूछा, "कल रात... कुछ हुआ था?"
जिया ने उसकी आँखों में झाँका।
"नहीं," उसने झूठ बोल दिया।
अब वह जान चुकी थी कि अज़ल के अंदर का अंधेरा और गहरा हो रहा था।
उसे अब जल्दी से जल्दी इस राज़ का हल निकालना था, इससे पहले कि यह अंधेरा दोनों को पूरी तरह निगल जाए।
अंधेरे की परछाइयाँ
जिया ने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन पिछली रात जो हुआ था, वह उसे झकझोर चुका था।
अज़ल नाश्ता खत्म करने के बाद अपने कमरे में चला गया। जिया जानती थी कि अब उसे जल्दी ही किसी उपाय तक पहुँचना होगा। उसने मौलवी साहब से मिलने का फैसला किया।
वह जल्दी से तैयार हुई और बाहर जाने लगी, लेकिन तभी अज़ल ने उसे रोक लिया।
"कहाँ जा रही हो?" उसकी आवाज में सवाल के साथ-साथ संदेह भी था।
जिया ने झूठ बोलते हुए कहा, "बाजार तक जा रही हूँ, कुछ ज़रूरी सामान लेना था।"
अज़ल उसे कुछ देर घूरता रहा, फिर धीरे से बोला, "ठीक है, जल्दी लौट आना।"
जिया ने सिर हिलाया और जल्दी से बाहर निकल गई।
जिया जब मौलवी साहब के पास पहुँची, तो उसकी आवाज़ काँप रही थी।
"मौलवी साहब, अज़ल... उसके अंदर कुछ है... और अब वो काबू से बाहर होता जा रहा है।"
मौलवी साहब ने गहरी साँस ली और बोले, "मैंने पहले ही कहा था, यह कोई आम साया नहीं है। यह जिन्न पूरी तरह अज़ल को अपने काबू में कर चुका है। लेकिन अभी भी एक तरीका है..."
"क्या?" जिया ने बेचैनी से पूछा।
"हमें उस जिन्न का असली नाम जानना होगा। जब तक उसका नाम नहीं पता चलेगा, तब तक हम उसे निकाल नहीं सकते।"
जिया के माथे पर पसीना आ गया।
"लेकिन उसका नाम मैं कैसे जानूँ?"
मौलवी साहब ने कहा, "अज़ल की हरकतों पर ध्यान दो। वह जब भी किसी और भाषा में कुछ बड़बड़ाए, उसे याद रखने की कोशिश करो।"
जिया ने सिर हिलाया और जल्दी से घर लौट आई।
जब वह घर पहुँची, तो अज़ल उसे अजीब नजरों से देख रहा था।
"तुम इतनी जल्दी लौट आई?"
"हाँ," जिया ने कोशिश की कि उसकी आवाज़ सामान्य लगे।
अज़ल कुछ नहीं बोला, लेकिन उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी।
रात को, जब दोनों अपने कमरे में थे, तो जिया बिस्तर पर लेटी थी, लेकिन उसकी आँखों में नींद नहीं थी।
अचानक अज़ल करवट बदलकर उसकी ओर मुड़ा।
"जिया..." उसकी आवाज़ में कुछ अलग था।
जिया ने धीरे से उसकी ओर देखा।
"तुम मुझसे डरती हो?"
जिया के हलक में कुछ अटक गया।
"नहीं..."
अज़ल हल्का सा हँसा और उसकी कलाई पकड़ ली।
"सच कहूँ तो, मुझे तुम्हारी यह घबराहट बहुत पसंद आ रही है।"
जिया को कुछ समझ नहीं आया। उसकी पकड़ में अजीब सी गर्मी थी, जैसे उसकी नसों में कुछ और बह रहा हो।
"अज़ल, तुम ठीक तो हो?"
अज़ल ने उसकी ओर झुकते हुए कहा, "क्या तुम सच में चाहती हो कि मैं ठीक हो जाऊँ?"
जिया को उसका यह सवाल अजीब लगा।
"ये तुम क्या कह रहे हो?"
अज़ल ने उसकी ठुड्डी पकड़कर ऊपर उठाई और उसकी आँखों में देखा।
"अगर मैं बदल गया, तो क्या तुम मुझसे प्यार कर सकोगी?"
जिया कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी कमरे की बत्तियाँ अचानक बुझ गईं।
अंधेरे में सिर्फ अज़ल की आँखें चमक रही थीं।
"अज़ल?"
लेकिन अज़ल का चेहरा अब भी अंधेरे में चमक रहा था।
"तुम चाहती हो ना कि मैं ठीक हो जाऊँ?" उसकी आवाज़ भारी हो चुकी थी।
जिया घबराकर पीछे हट गई।
तभी कमरे के कोने से एक अजीब सी फुसफुसाहट सुनाई दी।
"नहीं... वह मेरी है... मेरी..."
जिया ने काँपते हुए देखा—आईने में एक काली परछाई थी।
अचानक अज़ल का चेहरा पीड़ा से बिगड़ गया। उसने अपना सिर पकड़ लिया और जोर से चीखा।
"नहीं! मैं तुम्हारी बात नहीं मानूँगा!"
वह ज़मीन पर गिर पड़ा और तड़पने लगा।
जिया को समझ नहीं आया कि क्या करे।
फिर उसे याद आया—मौलवी साहब ने कहा था कि उसे उस जिन्न का नाम जानना होगा।
"तुम कौन हो?" जिया ने हिम्मत करके पूछा।
परछाई एक अजीब सी हँसी हँसी।
"तुम्हें लगता है मैं तुम्हें अपना नाम बता दूँगा?"
जिया ने जल्दी से अलमारी से अज़ल की पुरानी डायरी निकाली और उसके पन्ने पलटने लगी।
अचानक एक पन्ने पर एक नाम लिखा हुआ था—"ज़ायफ़र"
जिया ने काँपते हुए नाम पढ़ा, "ज़ायफ़र?"
इतना सुनते ही परछाई गुस्से से चीख उठी।
अज़ल ज़मीन पर और जोर से तड़पने लगा।
जिया ने जल्दी से मौलवी साहब को फोन किया।
"मुझे जिन्न का नाम मिल गया!"
मौलवी साहब ने तुरंत कहा, "अब एक मोमबत्ती जलाकर उसका नाम तीन बार पढ़ो और अल्लाह से मदद माँगो।"
जिया ने जल्दी से मोमबत्ती जलाई और कांपते हुए कहा—
"ज़ायफ़र... ज़ायफ़र... ज़ायफ़र..."
अचानक कमरे में ज़ोरदार हवा चलने लगी।
आईना फूट गया और परछाई ज़ोर से चीखते हुए गायब हो गई।
अज़ल बेहोश हो गया।
जब अज़ल को होश आया, तो उसकी आँखों में शांति थी।
"जिया... क्या हुआ था?"
जिया ने उसकी ओर देखा।
"तुम्हें याद नहीं?"
अज़ल ने सिर हिलाया, "मुझे बस इतना याद है कि कोई मुझे मेरे ही अंदर से नियंत्रित कर रहा था... लेकिन अब सब कुछ हल्का लग रहा है।"
जिया ने राहत की साँस ली।
लेकिन उसके मन में एक सवाल था—क्या यह जिन्न सच में चला गया था? या फिर यह सिर्फ एक शुरुआत थी?
( जारी रहेगा... )
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