शाम के धुंधलके में पुराना, जर्जर "शांतिवन स्टेशन" बिलकुल सुनसान पड़ा था। चारों ओर फैली वीरानी, टूटी-फूटी पटरियाँ, और उजाड़ पड़ी इमारतें इस बात की गवाह थीं कि यहाँ बरसों से कोई ट्रेन नहीं रुकी थी। सन्नाटे को चीरती हुई ठंडी हवा सरसराती थी, मानो किसी अंजाने खौफ की दस्तक दे रही हो। तभी स्टेशन के बाहर एक जीप आकर रुकी। उसमें से राघव और उसकी टीम के तीन अन्य सदस्य — शेखर, नीलिमा, और मनीष — उतरे। वे सभी हैरानी और रोमांच से स्टेशन की हालत को देख रहे थे। “यार, ये तो सच में बहुत ही डरावना है। हम सच में इस स्टेशन पर रात बिताने वाले हैं?” मनीष ने घबराते हुए पूछा। “हम यहाँ डरने नहीं, सच्चाई जानने आए हैं,” राघव ने कड़क आवाज़ में कहा, “ये लोग कहते हैं कि ये ट्रेन अब भी हर पूर्णिमा की रात यहाँ से गुजरती है। और आज वो रात है, जब हमें सच्चाई का सामना करना है।” “लेकिन ये स्टेशन… ये जगह… इतनी अजीब और खौफनाक क्यों है?” नीलिमा ने कंपकंपाती आवाज़ में कहा, उसकी आँखों में डर साफ झलक रहा था राघव ने इमारत की ओर इशारा करते हुए कहा, “नीलिमा, कभी ये स्टेशन बहुत ही व्यस्त ह...
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